यत्र नार्यस्तु पुज्यन्ते रमन्ते तत्र दानवः
बेटी
बेटियां पैदा भी हों तो हो धनी परिवार में
दीन की बेटी खडी है आज भी बाजार में
जिन्दगी तो अब गरीबी के लिये अभिशाप है
बेटी गरीबों के यंहा होना भी अब तो पाप है
शब्द के सौन्दर्य से कब तक हमें लुभाओगे
बेटियों को देखने दीन के घर कब जाओगे
दीनता की रोज घटना घट रही इस देश में
क्यों घूमते दानव, दरिन्दे भेडियों के भेष में
अस्मिता लुटती है समझो, बेटियां ही मर गयी
आत्महत्या ही बची है, बेटियां जो कर गयी
कानून भी अश्लीलता की पर्त को ही बोलते हैं
कचहरी में बे - हया कानून कपडे खोलते हैं
हम तो इज्जतदार परिवारों में रिस्ता मांगते हैं
मजबूरियों में बेटियों को हम ही शूली टांगते हैं
इज्जत बचाने के लिये,बस, मर रही है बेटियां
धर्म के इस देश में क्या कर रही हैं बेटयां
घर बार भी बिकता है बेटी की विदायी के लिये
जिन्दगी कर्जे में है,ऋण की अदायी के लिये
इस दर्द को भी मौन होकर बाप ही तो झेलता है
समाज तो बस, बेटियों के भाव से ही खेलता है
आज भी अबला बनी हैं र्दुगन्द ढोने के लिये
बस, बेटियां लुटती रही हैं, सिर्फ रोने के लिये
गर्भ में भी भ्रूण बन, बे-वक्त मरती जा रही हैं
मौत से बच कर सदा ,श्रृंगार करती जा रही हैं
सीता ,अहिल्या, द्रोपदी ,लक्ष्मी बनी संसार में
अस्मिता लुटती रही कंही प्यार में संहार में
कौमों कबीलो के लिये बेटी जॅंहा को पालती हैं
कष्ट में भी प्यार बन बेटी स्वयं को ढालती हैं
माॅं, भागिनी,भौजी बनी दुनियां बचाने के लिये
मैं जन्म लेती हूॅं सदा श्रृष्टि रचाने के लिये
उपाशनाऔर वाशना में मैं सतत् सज के खडी हूॅं
श्रृंखला ब्रह्माण्ड की भी जोडने की मैं कडी हूॅं
यक्ष, किन्नर, नाग, देवों से सदा लुटती रही हूॅं
अय्यासियों मेंअप्सरा बनकर सदा घुटती रही हूॅं
ये जमाना काम-क्रिडा और हवश को जानता है
बस, वेदना मेरे हृदय की ‘आग’ ही पहचानता हेै!!
राजेन्द्र प्रसाद बहुगुणा(आग)